Saturday, August 23, 2008

रुबाई ५

बने पुजारी प्रेमी साकी,
गंगाजल पावन हाला,
रहे फेरता अवरित गति से
मधु के प्यालों की माला
'और लिए जा,और पिए जा'-
इसी मंतर का जाप करें
मै शिव की प्रतिमा बन बैठूं,
मन्दिर हो यह मधुशाला.

1 comment:

जितेन्द्र ‘जौहर’ Jitendra Jauhar said...

भाईवर,
यह ‘रुबाई’ नहीं है...हरिवंश राय बच्चन जी की ‘मधुशाला’ रुबाई-कृति नहीं थी। स्वयं बच्चन जी ने इसे स्वीकार किया था...यद्यपि वे लम्बे समय तक अपनी उक्त कव्य-कृति को भ्रमवश रुबाई-कृति ही मानते रहे।